"आत्मनिर्भर"
यह शब्द सुना तो बहुत था, बचपन में इस पर निबंध भी बहुत लिखे थे पर मेरे लिए यह शब्द तब तक अस्तित्व में नहीं था जब तक की मुझे मेरी सहेली ने इसका असल अर्थ समझाया नहीं था।
मेरे पिताजी श्रीमान कल्पेश सिंह भदौरिया एक व्यापारी है, जिनकी खुद की एक बहुत बड़ी सी साड़ियों और लहंगों की दुकान है कानपुर में।समाज में बड़ा ही नाम और सम्मान कमाया है उन्होनें। मेरी माताजी श्रीमती कल्पना कल्पेश सिंह भदौरिया एक गृहणी है।
और मैं हूं इन दोनों की एकमात्र संतान, इनकी एकलौती बेटी त्रिशा और यह है मेरी कहानी। वैसे तो मैं एकलौती हूं पर मेरा एक गोद लिया हुआ भाई भी है। जिसका नाम है तन्मय। तन्मय यूं तो मेरे सगे मामा का बेटा है किंतु उसके जन्म के समय पर ही मम्मी पापा ने उसे गोद ले लिया था। और तब से वह हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है। तन्मय यह बात जानता है और अब समझता भी है और उसे कोई परेशानी भी नहीं है इस बात को स्वीकार करने में।
खैर यह तो हुई मेरे परिवार की बात अब आती हूं अपने ऊपर। हां तो हुआ यूं कि एकलौती होने के कारण बचपन से ही मुझे मेरे माता- पिता ने बड़े ही लाड़- प्यार से पाला था। एकदम राजकुमारी की तरह। ऐसी कोई चीज ना था जिसका आभाव मैने कभी भी अपने जीवन में महसूस किया हो। ऐसी कोई फरमाइश ना थी मेरी जिसे पापा ने तुरंत पूरा किया ना हो।
खाने पीने से लेकर कपड़ो तक, रहने की जगह से लेकर शिक्षा तक। कहीं भी, कभी भी, किसी भी प्रकार कि कमी महसूस ना होने दी उन्होनें मुझे।
किंतु उनके इस अत्याधिक स्नेह के कारण ही कभी मुझे "आत्मनिर्भरता " शब्द का अर्थ ही नहीं समझ आया। बचपन से ही मैं अपने पिता पर ही आश्रित थी। इस बात, हर काम चाहे वो छोटा सा छोटा ही क्यों ना हो मैं उन पर निर्भर थी। भावनात्मक तौर पर में अपनी मां पर निर्भर रहीं, कभी अपनी भावनाओं के भंवर से खुद सुलझने की कोशिश ना कि। आर्थिक तौर पर में अपने पिता पर निर्भर रहीं। अगर एक रुपए की चीज भी चाहिए होती तो मुझे वहीं दिखाई देते।
अगर बाहर दुकान से कोई सामान चाहिए होता तो उसे लाने के लिए मैं तन्मय पर निर्भर थी। कहने को तो मैं उस समय 23 साल की थी। 18 की उम्र में मैनें अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी की थी। 21 की उम्र में बी० एस० सी और 23 की उम्र में एम० एस० सी। पढ़ाई की बात करे तो मैं बहुत पढ़ी लिखी हूं पर इस पूरे समय में भी मुझे इस दुनिया को देखने का मौका नहीं मिला था।
मैनें अपने पूरे जीवन में अभी तक कुछ भी स्वयं नहीं किया था। क्योंकि मेरे परिवार वालों ने कभी मुझे यह महसूस ही नहीं होने दिया कि मुझे खुद भी कुछ जीवन में कुछ करना पड़ सकता है। हां मुझे जो मेरे घरवालों ने सिखाया वह बस यही था कि कैसे भविष्य में जाकर मुझे एक कुशल गृहणी बनना है। और इस प्रकार सब पर आश्रित रहते रहते मेरा आत्मविश्वास भी खत्म भी हो गया। घरवालों के अत्याधिक प्यार और अत्याधिक सुरक्षा ने मुझे इतना संकोची, कमजोर और डरपोक बना दिया कि मुझे अकेले अपने घर से बाहर निकलने में, बाहर के लोगों से बात करने में, उनके आगे अपनी बात रखने में भी डर लगता था।
उस समय की त्रिशा के बारे में अगर मैं बताना चाहूं तो वह भले ही आज के इस आधुनिक समय की लड़की थी किंतु उसमें इस समय की लड़कियों वाले कोई गुण ना था।
"सरल और सादा स्वाभाव, सुंदर और शर्मीली, बेहद ही संस्कारी और शांत व घर के सभी कामों में निपुण है वो। किसी से कभी ऊंची आवाज में बात नहीं करती है। हमेशा घरवालों के मन का काम करती है। कुछ भी हो कभी मुंह से चूं तक ना निकालती है। ऐसी है हमारी त्रिशा। " मेरे बारे में मुझे देखने आने वाले लड़को के घरवालों को यही बताया जाता था। तो शायद यही थी मैं।
मेरी शुरुआती जिंदगीं में मुझे मेरे पिता के आश्रय में कभी भी आत्मनिर्भर बनने की जरुरत नहीं पड़ी और ना उन्हें कभी ऐसा लगा कि जीवन में मुझे कभी इसकी जरुरत पड़ेगी इसलिए यह शब्द मेरे लिए अस्तित्व में था ही नहीं।
बाहर की असल दुनिया क्या है? कैसी है? इस दुनिया के लोग कैसे है? यह समाज कैसा है? इस दुनिया में उतार चढ़ाव क्या होता है? दुख क्या होता है यह सब कभी आपनी आंखों से तो मैनें कभी देखे ही ना थे।
हां बचपन में इच्छा बहुत थी इन सवालों के जवाब जानने की पर समय के साथ साथ वह इच्छा भी खत्म हो गई। पर कहते है ना वक्त सब सिखा देता है, सारे सवालों के जवाबों बता देता है, सो मुझे भी उसने सब सिखा दिया............
आगे की कहानी अगले भाग में......